चीन-भारत संबंधों में क्या है एक्युपंक्चर का रोल, इंडिया कैसे पहुंचा एक्युपंक्चर?

2022-05-28 18:35:42

 

एक्युपंक्चर पद्धति की शुरूआत चीन में कई हजार वर्ष पहले हुई। यह पद्धति आज दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय हो चुकी है। इसी तरह भारत में भी इसका इस्तेमाल विभिन्न शारीरिक समस्याओं के उपचार में किया जाता है। माना जाता है कि चीन और भारत के बीच रिश्तों को मजबूत बनाने में एक्युपंक्चर पद्धति का अहम योगदान रहा है। यह कहने में कोई दोराय नहीं कि इस पद्धति ने इन दो पड़ोसी देशों के चिकित्सकों और लोगों को नजदीक लाने का काम किया है। इसी कारण दोनों देशों के डॉक्टर कई बार एक-दूसरे देश की यात्रा कर चुके हैं। लेकिन मन में सवाल यह उठता है कि यह पद्धति आखिर चीन से भारत कैसे पहुंची। इस बारे में जानने के लिए सीएमजी संवाददाता अनिल पांडेय ने बातचीत की एक्युपंक्चर एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. गॉन ताईत से, जो कि डॉ. कोटनिस मेमोरियल कमेटी के अध्यक्ष भी हैं।

 


उन्होंने कहा कि वर्ष 1938 में जापानी आक्रमण विरोधी युद्ध के दौरान चीनी लोगों की मदद के लिए डॉ. कोटनिस व डॉ. बी.के. बसु सहित पांच डॉक्टरों का एक दल चीन गया। उस अवधि में उक्त डॉक्टर चीनी नागरिकों के साथ-साथ सैनिकों को मेडिकल मदद देते रहे। इसी बीच चीन में 1942 में डॉ. कोटनिस की मृत्यु हो गई। लेकिन चीन में पाँच साल बिताने के बाद डॉ. बी.के.बसु व अन्य डॉक्टर भारत वापस लौट आए। कोटनिस और मेडिकल मिशन के बारे में प्रचार के लिए 1945 में ऑल इंडिया डॉक्टर कोटनिस मेमोरियल कमेटी का गठन किया गया। इसके साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में भी प्रचार आदि कार्य हुआ। इसके पश्चात निर्देशक वी. शांताराम ने डॉ. कोटनिस की अमर कहानी फिल्म बनायी ।

जबकि साल 1956 में तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चोउ अन लाइ भारत यात्रा पर पहुंचे। वहां उन्होंने 1938 में चीनी लोगों की मदद के लिए चीन गए चिकित्सकों से मुलाकात की और उन्हें चीन आमंत्रित किया। जिसमें डॉ. बी.के.बसु और अन्य डॉक्टर शामिल थे। ऐसे में 1957 में दल के चार सदस्य चीन दौरे पर गए। चीन पहुंचने पर डॉ. बसु को फिर से सिर दर्द की पुरानी समस्या शुरू हो गयी, जो कुछ ही समय में काफी बढ़ गयी। इस पर बसु के चीनी दोस्तों ने उन्हें एक्युपंक्चर का तरीका अपनाने को कहा।

हालांकि डॉ. बसु वर्ष 1938 से 1943 तक चीन में रहे थे, लेकिन उस दौरान एक्युपंक्चर के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी। लेकिन इस बार जब उन्होंने एक्युपंक्चर से इलाज लेना शुरू किया तो जल्द ही उनके सिर दर्द में बहुत आराम हो गया। ऐसे में डॉ. बसु ने एक्युपंक्चर पद्धति सीखने का फैसला किया। वह 1958 में फिर चीन पहुंचे और लगभग 6 महीने तक एक्युपंक्चर सीखा। बसु को चीनी भाषा भी आती थी और फिर उन्होंने एक्युपंक्चर की बारीकियां सीखीं। इसके साथ ही कोलकाता में एक्युपंक्चर उपचार केंद्र की स्थापना हुई। लेकिन चीन और भारत के बीच 1962 में हुए युद्ध के बाद दोनों देशों के रिश्ते खराब हो गए। इसके बाद कई वर्षों तक कोई सीधा संपर्क नहीं रहा।

 लकिन बाद में वर्ष 1973 में डॉ. बी.के. बसु को फिर से चीन से निमंत्रण मिला। जो कि चीन और भारत के बीच पहला गैर-सरकारी आदान-प्रदान था। इस बार उन्हें एक्युपंक्चर एनेसथीसिया सीखने के लिए बुलावा आया। इसी बीच कोटनिस मेमोरियल कमेटी पुर्नस्थापित हुई। डॉ. बसु को 1973 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने चीन जाने की अनुमति दे दी। इसके कारण फिर से चीन-भारत संबंध फिर से पटरी पर आने लगे। डॉ. बसु के इस दौरे और एक्युपंक्चर सीखने आदि को एक्युपंक्चर डिप्लोमेसी नाम दिया गया। उस वक्त मीडिया ने इसे भारत-चीन दोस्ती के संदर्भ में एक्युपंक्चर डिप्लोमेसी बताया। ऐसे में चीन-भारत संबंधों को सुधारने में एक्युपंक्चर की एक अहम भूमिका रही है। इसके पश्चात दोनों देशों के बीच आवाजाही बढ़ गयी और 1974 में कोटनिस कमेटी का एक प्रतिनिधिमंडल चीन गया। उस प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देवदार के दो पौधे भी चीन भेजे ।

इसके पश्चात 1976 में चीन ने हबेई प्रांत के शच्याचुआंग में कोटनिस मेमोरियल हॉल स्थापित हुआ। इसके उद्घाटन के लिए डॉ. बसु के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल चीन गया। हालांकि इससे कुछ समय पहले यानी अप्रैल 1976 में चीन-भारत के बीच राजनयिक संबंध फिर से शुरू हुए। वर्षों तक राजनयिक स्तरीय आदान-प्रदान बंद रहने के बाद के. आर. नारायणन ने राजदूत के रूप में चीन में कार्यभार संभाला। इस दौरान संबंध बेहतर होने लगे और 1978 में चाइनीज़ पीपुल्स एसोसिएशन फॉर फ्रेंडशिप विद फॉरेन कंट्रीज़ के चेयरमेन वांग फिंगनान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल भारत आया। यह दल अपने साथ भारतीय विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को चीन बुलाने के लिए निमंत्रण पत्र भी लाया था। फिर 1979 में अटल बिहारी वाजपेयी ने चीन का दौरा किया। इस तरह वह चीन और भारत के बीच पहली मंत्रिस्तरीय आवाजाही थी।

 इसके बाद लगातार आवाजाही बढ़ती रही। संबंधों को बेहतर करने में कोटनिस कमेटी का महत्वपूर्ण योगदान रहा। आजकल भारत में कोटनिस मेमोरियल केंद्रों में एक्युपंक्चर सेंटर चल रहे हैं। जिनमें लोगों का निशुल्क इलाज किया जाता है। यहां काम करने वाले स्वयंसेवी होते हैं, जो बिना पैसे के काम करते हैं।

यहां एक और अहम बात बताना जरूरी है कि इन एक्युपंक्चर केंद्रों में लोगों को स्वास्थ्य लाभ तो मिलता ही है, साथ ही जब मरीजों को यह पता चलता है कि यह पद्धति चीन से भारत आयी है, तो लोगों में चीन के प्रति सहानुभूति और दोस्ती की भावना बढ़ जाती है। 

वर्तमान में एक्युपंक्चर पद्धति का देश के लगभग सभी हिस्सों में प्रसार हो चुका है। एक्युपंक्चर के प्रचार-प्रसार के लिए हर साल राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। बता दें कि 2016 में एक्युपंक्चर एसोसिएशन के डॉ. गॉन ताईत सहित दस सदस्यों को हूनान यूनिवर्सिटी ऑफ ट्रेडिशनल चायनीज़ मेडिसिन द्वारा चीन में आमंत्रित किया गया। इसके साथ ही हूनान यूनिवर्सिटी से तीन चिकित्सक भारत में एक्युपंक्चर की ट्रेनिंग देने के लिए आए। इस तरह इंडिया में एक्युपंक्चर लगातार अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।

अहम बात यह है कि भारत की केंद्र सरकार ने 2019 में एक्युपंक्चर पद्धति को थेरेपिटिक मॉडेलिटी के रूप में मान्यता प्रदान की है। लेकिन सबसे पहले 1996 में पश्चिम बंगाल सरकार ने एक्युपंक्चर को मान्यता दी। जबकि महाराष्ट्र सरकार ने 2017 में ऐसा किया। यही नहीं एक्युपंक्चर की भारत के सभी राज्यों में प्रैक्टिस की जाती है। इसके कारण भारत में एक्युपंक्चर के प्रति लोगों में जागरूकता और जानकारी बढ़ रही है।

 

एक्युपंक्चर भारतीय आयुर्वेद आदि से कितना अलग है, इस बारे में गॉन ताईत कहते हैं कि वे खुद एक एलोपेथी डॉक्टर हैं। उनके मुताबिक कोई भी सिस्टम पूरी तरह सौ प्रतिशत सटीक नहीं होता। एक्युपंक्चर चीन की परंपरागत पद्धति है, जबकि हमारे यहां आयुर्वेद, योग व विभिन्न तरह की जड़ी-बूटियां हैं। सभी चिकित्सा पद्धतियां में कुछ अच्छी चीजें होती हैं और उनकी कुछ सीमाएं भी होती हैं। जहां तक जोड़ों के दर्द व गठिया की बात है तो उसमें एक्युपंक्चर बहुत कारगर ढंग से काम करता है। सबसे अच्छी बात यह है कि एक्युपंक्चर का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। साथ ही यह पद्धति बहुत सस्ती होती है। इसी तरह योग करने से भी बहुत लाभ हैं। जबकि पश्चिमी दवाएं महंगी होने के साथ-साथ गठिया में उतनी प्रभावी नहीं होती हैं।

जबकि भारतीय हर्बल दवाओं का भी कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है, हालांकि हमारे देश में इनका उतना इस्तेमाल नहीं होता है। मैंने चीन जाकर देखा है कि वहां परंपरागत चीनी दवाओं का बड़ी मात्रा में उपयोग किया जाता है। चीन ने परंपरागत दवाओं के बाजार को अच्छी तरह विकसित किया है।

 

कहना होगा कि एक्युपंक्चर ने चीन-भारत रिश्तों को बेहतर बनाने में पुल की भूमिका निभायी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में एक्युपंक्चर की लोकप्रियता भारत में और बढ़ेगी, साथ ही संबंध भी मजूबत होंगे।

 

अनिल पांडेय, चाइना मीडिया ग्रुप

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