अफ़ग़ान बदलाव के सामने भारत को शांत रहना ही चाहिये

2021-08-24 20:39:59

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हाल के दिनों में, अफगानिस्तान में स्थितियों के बदलाव ने भारतीय मीडिया में भीषण बहस पैदा की है। मीडिया में अफगानिस्तान में स्थितियों के विकास और भारतीय रुख के बारे में भिन्न भिन्न राएं सुनायी जा रही हैं। जिनके आम तौर पर दो मुख्य बिंदु हैं: यानी पहला, तालिबान की सत्ता में वापसी "लोकतांत्रिक विफलता" है। दूसरा, आतंकवादी ताकतों के विस्तार से भारतीय अधिकृत कश्मीर को अधिक दबाव का सामना करना पड़ेगा। इसके अलावा, कुछ भारतीय मीडिया विश्लेषणों ने यह भी बताया कि अफगानिस्तान में भारत के भारी निवेश और बुनियादी उपकरण निर्माण की योजना पर भी कुप्रभाव पड़ेगा।

वर्तमान में, अफगान स्थितियों का विकास अभी भी जारी है। पश्चमी देशों द्वारा कड़ी निन्दा की जाने के अलावा, चीन और रूस सहित शांघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ के सदस्य देशों ने उम्मीद जताई है कि अफगानिस्तान में जल्द से जल्द स्थिर कायम किया जा सकेगा ताकि अफगान जनता युद्ध से छुटकारा पा सकें। लेकिन भारतीय अधिकारियों ने अब तक तालिबान के साथ कोई संपर्क नहीं रखा। अफगानिस्तान की स्थिति के बारे में बात करते समय, भारतीय विदेश मंत्री एस जयशंकर ने  इस बात पर जोर देते हुए कहा कि अफगानिस्तान को "बुरे प्रभाव" से मुक्त कराया जाना पड़ेगा। 

भारत की अफगानिस्तान नीति कश्मीर और आतंकवाद विरोधी मुद्दों पर उसके रुख से संबंधित है। भारत लंबे समय से यह मानता रहा है कि तालिबान एक बड़ा खतरा है। यदि तालिबान सत्ता पर कब्जा कर लेता है, तो तालिबान और पाकिस्तान की संयुक्त शक्ति भारत को बहुत दबाव में डाल देगी और अंततः कश्मीर को अधिक मुस्लिमीकरण की ओर ले जाएगी। इसलिए, भारत ने अमेरिकी सेना के सहारे अफगानिस्तान में अपने प्रभाव का विस्तार करने का प्रयास किया, ताकि उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से पाकिस्तान को दबाया जा सके और अंत में कश्मीर मुद्दे को अपने लाभ के अनुकूलन हल किया जा सके। इसके लिए, भारत ने अफगानिस्तान में भारी निवेश लगाकर बिजली स्टेशनों, बिजली पारेषण उपकरण, बांधों, रेलवे, स्कूलों और अस्पतालों जैसी बड़ी संख्या में परियोजनाओं का निर्माण किया। उधर 2011 में भारत ने अफगानिस्तान के साथ इस देश के 34 प्रांतों में 400 परियोजनाओं के निर्माण पर समझौता संपन्न किया। इसके अलावा, भारत ने अफगान सरकार का सैनिक समर्थन दिया। 11 जुलाई तक भी भारत ने अफगानिस्तान में बड़ी मात्रा में सैन्य आपूर्ति के परिवहन के लिए C17 रणनीतिक परिवहन विमान भेजा, ताकि अफगान सेना को तालिबान का सामना करने में मदद दे।

लेकिन अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की हार होने से यह साबित है कि कोई भी बाहरी सैन्य बल अफगानिस्तान को मौलिक रूप से नहीं बदल सकता है। ब्रिटिश उपनिवेशवादी  से लेकर पूर्व सोवियत संघ और अमेरिका तक, अफगानिस्तान में उनकी सैन्य विफलताओं ने यह साबित कर दिया है कि अफगानिस्तान एक "साम्राज्य का कब्रिस्तान" है। अफगानिस्तान की शांति केवल बाहरी हस्तक्षेप के बिना अफगान जनता द्वारा स्वयं कायम की जा सकेगी। अमेरिका ने 2001 में अफगानिस्तान में युद्ध शुरू किया और 20 साल बाद अपने सैनिकों को वापस ले लिया। जिसने अफगान लोगों को अधिक युद्ध और आपदाएं पैदा करने के अलावा, आतंक-रोधी और तथाकथित लोकतंत्रीकरण के मामले में कोई भी काम नहीं किया। उधर कोई भी अन्य देश, जो अमेरिका का अनुसरण कर अफगानिस्तान में अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित करना चाहता है, अंत में अनिवार्य रूप से विफल हो जाएगा।अफगानिस्तान की नियति को अफगान जनता द्वारा निर्धारित किया जाएगा। बाहरी ताकतों को प्रभाव डालने से पहले अफगान लोगों की पसंद का सम्मान करना चाहिए।

अफगानिस्तान में स्थिति के प्रति भारत को एक और अपरिहार्य कारक का सामना करना पड़ता है, यानी भारत और अफगानिस्तान के बीच सीमा पार की समस्या है। यदि पाक नियंत्रित कश्मीर से पार नहीं हो सके, तो सभी भारतीय कर्मी और सामान केवल ईरान और पश्चिम एशियाई देशों के माध्यम से ही अफगानिस्तान पहुंचाया जा सकेगा। इसे देखते हुए अफगानिस्तान की स्थिति में हस्तक्षेप करने की भारत की क्षमता वास्तव में बहुत सीमित है। गौरतलब है कि तालिबान ने चीन और रूस जैसी पड़ोसी शक्तियों को अपने प्रतिनिधिमंडल भेजे हैं। चीन और रूस दोनों ने अफगान लोगों की पसंद के सम्मान पर जोर दिया और आशा व्यक्त की कि अफगानिस्तान जल्दी से शांति और स्थिरता हासिल करेगा। हालाँकि भारत ने तालिबान के साथ संपर्क स्थापित करने से इनकार किया है, और इसके बजाय अमेरिका के साथ सहयोग करना पसंद करता है। इससे न केवल भारत के प्रति तालिबान की शत्रुता बढ़ गयी है, बल्कि रूस-भारत संबंध भी दूर हो गए हैं। साथ ही शांघाई सहयोग संगठन में भारत का प्रभाव भी कम होने लगा है।   

इस संबंध में विश्लेषकों का मानना है कि अफगानिस्तान में बदलाव के सामने भारत को शांत रहना चाहिए। यदि भारत अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति बनाए रखना चाहता है और अपने निवेश हितों की रक्षा करना चाहता है, तो उसे शांघाई सहयोग संगठन पर भरोसा करना चाहिए। क्षेत्रीय संगठनों के ढांचे के भीतर अफगानिस्तान में स्थिरता बहाल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए, और अफगान स्थिति को उस दिशा में बदलना चाहिए जो सभी पक्षों के हितों के लिए फायदेमंद हो।

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