उत्तर चीन के हो पेई प्रांत की राजधानी उत्तर शी च्या च्वान शहर से 15 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है । शांति व अमन चैन के वातावरण से भरा हुआ यह छोटा सा नगर चीन के प्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक शहरों में से एक है और यहां सुरक्षित राष्ट्रीय स्तरीय सांस्कृतिक व ऐतिहासिक अवशेषों की संख्या भी बहुत अधिक है और शिंग लुंग मंदिर भी उन में अपना विशेष स्थान रखता है ।
शिंग लुंग मंदिर चीन के दस बड़े बौद्ध मंदिरों की गिनती में आता है , उस का निर्माण डेढ़ हजार वर्ष पूर्व स्वी राजवंश में शुरू हुआ था । हमारी गाईड सुश्री ली ना ने इस मंदिर का परिचय देते हुए कहा कि इस मंदिर का क्षेत्रफल कोई 80 हजार वर्ग मीटर विशाल है , पर्यटकों को इस मंदिर के दौरे पर कई दुर्लभ स्थल देखने को मिलेंगे ।
सुश्री ली ना ने कहा कि बहुत से लोग इस प्राचीन शिंग लुंग मंदिर में मुख्य तौर पर यहां मौजूद छः दुर्लभ वस्तुएं देखना चाहते हैं ।
सुश्री ली ना ने इस तरह परिचय देते हुए कहा कि इन दुर्लभ वस्तुओं में चीन में सब से ऊंची सहस्र हस्त व आंखों वाली बौधिसत्व की कांस्य मूर्ति अपना विशेष स्थान रखती है और वह इस प्राचीन शिंग लुंग मंदिर का प्रतीक भी मानी जाती है । इस भीमकाय कांस्य मूर्ति की वजह से शिंग लुंग मंदिर महा बुद्ध मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । इस सहस्र हस्त व सहस्र आंखों वाली मूर्ति के पीछ एक पौराणिक कहानी भी छिपी हुई है ।
कहा जाता है कि बहुत पहले यहां के राजा की तीन अति सुंदर राजकुमारियां थीं । म्याओ य्येन नामक बड़ी राजकुमारी और म्याओ श्यांग नाम की मझौली राजकुमारी ने शादी कर ली , सिर्फ छोटी राजकुमारी म्याओ इंग शादी नहीं करना चाहती थी। म्याओ इंग बहेद होशियार और विनम्र थी । वह पांच साल की उम्र में ही बौद्ध सूत्र पढ़ने व कंठस्थ करने में निपुण हो गई थी और संन्यासिनी बनना चाहती थी । यह स्थिति देखकर राजा बहुत चिंतित हुआ और उस की शादी कराने की लाख कोशिश की , पर वह शादी करने को कतई तैयार नहीं हुई । बाद में राजा को एक गंभीर बीमारी हो गई और उस के पूरे बदन पर छाले निकल आए । हकीम ने नुस्खा देते समय यह कहा कि इस दवा का सेवन अपनी सगी संबंधी के मांस के साथ करने से ही राजा चंगा हो सकता है । राजा की बड़ी बेटी म्याओ य्येन व मझौली बेटी म्याओ श्यांग यह बलिदान करने को तैयार नहीं थीं । पर सब से छोटी बेटी राजकुमारी म्याओ इंग ने अपने पिता को बचाने के लिये बेहिचक अपनी बांह का मांस निकाल कर राजा को देने का निर्णय कर लिया । स्वस्थ होने के कुछ समय बाद राजा को अब आंख की गम्भीर बीमारी ने जकड़ लिया। ऐसी स्थिति में छोटी राजकुमारी म्याओ इंग ने अपना डेला निकालकर राजा को आंख की बीमारी से बचाया। बाद में भगवान बुद्ध शाक्यमुनि ने यह बात सुनकर राजकुमारी म्याओ इंग को सहस्र हस्त व आंखें भेंट कीं , इस तरह सहस्र हस्त व आंखों वाली बौद्धिसत्व की मूर्ति का जन्म हुआ ।शिंग लुंग मंदिर में सहस्र हस्त व आंखों वाली बौद्धिसत्व की कांस्य मूर्ति 21 मीटर ऊंची है । इतनी भीमकाय मूर्ति के निर्माण के बारे में और एक दिलचस्प पौराणिक कथा भी है । हमारी गाईड सुश्री वांग चिंग ने परिचय देते हुए कहा
क्योंकि यह मूर्ति बहुत ऊंची है , द्रव कांस्य मूर्ति के कंधों तक पहुंचने पर ही जम जाता है , निर्माता दुविधा में पड़ गये । अचानक एक सफेद दाढ़ी वाला बुजुर्ग सामने नजर आया । निर्माताओं ने मन ही मन सोचा कि वह शायद एक अनुभवी बुजुर्ग हो , हम उस से क्यों न पूछें । पर पूछने पर उस सफेद दाढ़ी वाले बुजुर्ग ने जवाब में कहा कि मेरे पास क्या उपाय है , मैं इतना बूढ़ा हो गया हूं कि मिट्टी अपनी गर्दन तक जम गयी है । यह बात कहकर वह चला गया । पर उस की यह बात निर्माताओं की समझ में आ गयी , अतः निर्माताओं ने ढेर सारी मिट्टी इस मूर्ति की गर्दन तक इकट्ठी की , फिर मिट्टी पर कांस्य पिघलाने के लिये एक बड़ा पात्र भी लगा दिया । इस तरह वे द्रव कांस्य से इस ऊंची मूर्ति का सिर ढालने में सफल हुए ।
वास्तव में कथाकथित सहस्र हस्त व आंखों वाली देवी बौधिसत्व की मूर्ति के पास हजार हाथ व आंखें नहीं थीं , उस के पास सिर्फ 42 हाथ हैं , सब से आगे के दोनों हाथ जोड़कर दिखाने के अतिरिक्त बाकी सभी हाथों में सूर्य , चांद , तीर और तलवार जैसे शस्त्र हैं , एक बहुत बड़ा खुला हुआ पंख मालूम पड़ता है , जो जन समुदाय के बचाव के लिए एक शक्तिशाली शक्ति प्रतीक है। बौधिसत्व मूर्ति के चेहरे पर तीन आंखें भी हैं , इस का अर्थ है कि वह अतीत , वर्तमान और परलोक जानती है ।
शिंग लुंग मंदिर में सहस्र मूर्ति को छोड़कर बौधिसत्व की तथाकथित उल्टी बैठी हुई मूर्ति भी बहुत चर्चित है और वह समूचे चीन में बेमिसाल मानी जाती है ।
पर इस मूर्ति का नाम उल्टी बैठी हुई मूर्ति क्यों पड़ा । वास्तव में चीन के सभी मंदिरों में जितनी भी ज्यादा बौधिसत्व की मूर्तियां पायी जाती हैं , वे सब की सब दक्षिणी ओर बैठी हुई दिखाई देती हैं , केवल इसी मंदिर में यह मूर्ति उत्तरी ओर बैठे हुए नजर आती है , इसीलिये यह मूर्ति उल्टी बैठी हुई मूर्ति के नाम से प्रसिद्ध हो गयी है । कहा जाता है कि बौधिसत्व ने यह कसम खाई थी कि यदि वह जन समुदाय को पीड़ा से छुटकारा दिलाने में सफल नहीं होगें , तो वह पीछे हटने का नाम तक भी नहीं लेगें । पर जरा सोचो , क्या मानव जाति की मुसीबतों को पूरी तरह मिटाया जा सकता है । अतः यह मूर्ति हमेशा के लिये उत्तर की ओर बैठी हुए दिखायी देती है और वह उल्टी बैठी हुई मूर्ति के नाम से विख्यात भी है ।
कहा जाता है कि यह मूर्ति वास्तविक सौंदर्य और खूबसूरत बौधिसत्व के तस्वीर की सूक्ष्म मिलावट का सफल नमूना है । हो पेई प्रांत के शह च्या च्वान शहर के सामाजिक अकादमी के अनुसंधानकर्ता व विद्वान श्री ल्यांग युंग ने उस के सौंदर्य की प्रशंसा में कहा
यह मूर्ति बेहद सजीव लगती है और वह बौद्ध मूर्तियों में विशेष स्थान रखती है ।
इस के अलावा लुंग शिंग मंदिर में स्वी राजवंश काल में निर्मित लुंग ज़ांग स शिला लेख और चीनी प्राचीन वास्तु शैली युक्त सहस्र बुद्ध मूर्तियां भी चीन बेमिसाल मानी जाती हैं ।
लुंग ज़ांग स शिलालेख एक हजार चार सौ साल पहले निर्मित हुआ था। इस शिला लेख पर अंकित चीनी लिपि कला अपनी विशेष पहचान बनाती है और वह अचमकदार सोने के नाम से भी जानी जाती है । सन 1052 में निर्मित मुनि भवन भी प्राचीन चीनी वास्तु कला इतिहास में दुर्लभ है । सात मीटर ऊंची कांस्य मूर्ति के सात मंजिला आधार पर कमल के फूल की सहस्र पंखुड़ियां बनायी गयी हैं और हरेक पंखुड़ी पर एक महीन मूर्ति बैठी हुई दिखाई गई है , इसलिये वह सहस्र मूर्ति कहलाती है । विद्वान ल्यांग यूंग ने कहा कि यह मूर्ति प्राचीन चीनी वास्तु कला की परिचायक है और चीन में बेमिसाल भी है ।