दोस्तो, आप जानते ही हैं कि चीन एक बहुजातीय देश है , और यहां प्रमुख जाति हान जाति को छोड़कर और अन्य 55 अल्पसंख्यक जातियां भी हैं । 26 लाख जनसंख्या वाली पु ई जाति उन में से एक है और इस जाति का आधा भाग आज दक्षिण पश्चिम चीन के क्वेचाओ प्रांत में बसा हुआ है । आज के चीन का भ्रमण कार्यक्रम में हम आप के साथ पु ई जाति बहुल गांव चंद्रमा गांव देखने चलते हैं । इस गांव को अपनी जातीय संस्कृति के अच्छे संरक्षण की वजह से प्रथम चीनी पु ई गांव माना जाता है।
पु ई जाति के कस्बे और गांव आम तौर पर पहाड़ों की तलहटियों या नदियों के के किनारे खड़े हुए हैं और वे घने जंगलों से घिरे हुए दिखाई पड़ते हैं ।पास में नदियां कल-कल करती हुईं बहती हैं । एक दिन की सुबह हम जल्दी उठकर चंद्रमा नामक गांव के लिये रवाना हुए । एक स्वच्छ नदी के तट का अनुसरण करते हुए जब हम चंद्रमा गांव के छोर पर पहुंचे , तो हम ने देखा कि सुदंर पु ई जाति की पोषाक में सुसज्जित युवतियां हमें मदिरा पेश करने के लिये गीत गाते हुए खड़ी हुई हैं । स्थानीय गाइड ली शिंग ने हमें बताया कि उन्हों ने जो गीत गाया है , वह मार्गरोधी शराब गीत ही है , जबकि पेश करने के लिये हाथों में जो शराब है , वह मार्गरोधी शराब ही है ।
उन्हों ने कहा कि यह मार्गरोधी शराब आदरणीय मेहमानों के सम्मान में पेश की जाती है और वह शकुन का प्रतीक भी है । स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार आदरणीय मेहमानों को दो बार मार्गरोधी शराब पिलाई जाती है । पहली बार युवा लोग मेहमानों को सम्मान के रूप से शराब पेश करते हैं , फिर बुजुर्ग लोग मेहमानों को यह शराब पेश करते हैं ।
श्री ली शिंग ने कहा कि पु ई जाति की परम्परा के अनुसार मेहमान दो कप शराब पीने पर ही गांव में दाखिल हो सकता है । पर यह चिन्ता की बात नहीं है। यहां पर जो शराब पिलायी जाती है , वह तेज शराब न होकर चावल से तैयार की हुई शराब है और उस का स्वाद थोड़ा खट-मीठा है , पीने में बड़ा मजा आता है ।
चंद्रमा-गांव का हरेक घर घने बांसों व पेड़ों से घिरा हुआ है , चारों ओर शांत व साफ सुथरा वातावरण व्याप्त है , पास में कल-कल बहती चंद्रमा-नदी गांव को चार चांद लगाती है । पु ई जाति की युवती वांग ह्वी ने हमें बताया कि चंद्रमा-गांव का नाम ठीक इसी चंद्रमा-नदी पर रखा गया है। इस नदी के पीछे एक मर्मस्पर्शी पौराणिक कहानी भी प्रचलित है ।
कहा जाता है कि बहुत पहले यहां माउ मई नामक एक सुंदर लड़की रहती थी और उसे चंद्रमा नामक एक लड़के से मुहब्बत हो गयी । यहां का ये लांग नामक राजा सुंदर लड़की माउ मई को अपनी दासी बनाना चाहता था , पर लड़की माउ मई इस के लिए कतई तैयार नहीं थी । मजबूर होकर राजा ये लांग ने उस से कहा कि यदि तुम्हारा चंद्रमा-भाई इस नदी को उल्टी बहा दे , तो मैं तुम दोनों को एक साथ रहने दूंगा । ऐसी स्थिति में बेचारा चंद्रमा भाई बेहद दुखी हुआ और रोने के सिवा वह कुछ नहीं कर सकता था। अतः वह हर रोज इस नदी के तट पर बैठ कर रोता रहता था , उस के रोने की आवाज से प्रभावित होकर भगवान इस नदी को उल्टा बहाने ही वाले थे कि अचानक मुस्लाधार वर्षा हुई और नदी में बाढ़ आ गयी । चंद्रमा-भाई बाढ़ में डूब गया । यह जानकर माउ मेई बहुत दुख हुई और उस ने सीधी खड़ी चट्टान से कूदकर आत्महत्या कर ली ।
तब से ही यह नदी दूसरी नदियों से अलग होकर पूर्व से पश्चिम के बजाये पश्चिम से पूर्व की ओर बहने लगी । नदी के तट पर स्थित इस छोटे पहाड़ी गांव को तब से चंद्रमा नाम दिया गया ।
चंद्रमा-गांव में बहुत सी पु ई जातीय परम्पराएं हैं , जिन में तांबा ढोल सब से चर्चित है । जिस दिन हम चंद्रमा-गांव गये , उसी दिन चीनी पंचांग के अनुसार 6 जून को पुई जाति का परम्परागत पहाड़ी-गीत दिवस मनाया जा रहा था । दिवस की खुशियों में आयोजित समारोह में हम ने पु ई जाति का धरोहर तांबा-ढोल देखा ।
तांबा-ढोल पु ई जाति के पूजा पाठ समारोह में प्रयोग किये जाने वाला महत्वपूर्ण यंत्र है। पु ई जाति के हरेक गांव में एक तांबा-ढोल होना ज़रूरी है और वह आम तौर पर गांव के मुखिया या किसी बड़ी हस्ती के घर में सुरक्षित रखा जाता है । 70 वर्षीय बुजुर्ग छन चुंग हंग इस गांव के सब से वृद्ध अनुभवी ढोलकिया हैं । उन्हों ने तांबे ढोल का परिचय देते हुए कहा
तांबा-ढोल हमारी पु ई जाति की धरोहर है और हमारी जाति तथा समूची जाति की एकता का प्रतीक भी है । बुजुर्ग छन चुंग हंग के अनुसार पुराने जमाने में इस प्रकार के तांबे ढोल का प्रयोग लड़ाइयों में किया जाता था ।
लेकिन इस प्रकार वाले तांबे ढोल के बारे में यह भी कहा जाता है कि भगवान ने यह तांबा-ढोल पु ई जाति को उपहार में दिया था । जब किसी वृद्ध का दम टूट जाता है , तो गांव के लोग जोर से ढोल पीटते हैं , ताकि भगवान ढोल की आवाज सुनकर उस वृद्ध की आत्मा स्वर्ग में ले जा सके । इस के अलावा नव वर्ष और परम्परागत अहम त्यौहारों में पूर्वजों की पूजा करने की रस्म में भी तांबा-ढोल ज़रूर पीटा जाता है , ताकि पूर्वज स्वर्ग से नीचे आकर अपनी संतानों के साथ त्यौहार मना सकें और पूरे परिवार की सुरक्षा व शानदार फसलें सुनिश्चित कर सकें । क्योंकि तांबा-ढोल पु ई जाति में अपना विशेष स्थान रखता है , इसलिये पु ई जाति में ढोल पीटने के कड़े नियम हैं ।इन नियमों के अनुसार सिर्फ नव-वर्ष,अंत्येष्टि या महत्वपूर्ण भव्य त्यौहारों के उपलक्ष्य में ही तांबा-ढोल पीटने की इजाज़त दी जाती है। इतना ही नहीं , ढोल पीटने से पहले एक भव्य व रहस्यमय पूजा रस्म आयोजित होना भी अत्यावश्यक है।
तांबा-ढोल की पूजा रस्म गांव में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है । पूजा रस्म में तांबा-ढोल के आगे प्रसाद के रूप में मुर्गा आदि का मांस रखा जाता है , फिर गांव के सब से वृद्ध पुरूष के नेतृत्व में सभी शादीशुदा पुरूष एक साथ तांबा-ढोल की पूजा करते हैं । बुजुर्ग छन चुंग हंग ने ढोल पूजा रस्म से अवगत कराते हुए कहा
तांबा-ढोल हमारी पुई जाति का पवित्र ढोल है , हम उस का बहुत आदर करते हैं , इसलिये हर वर्ष इस वक्त सभी लोग ढोल पूजा के लिये मुर्गे व सुअर का प्रसाद लेने यहां इकट्ठे हो जाते हैं । पूजा रस्म में सब से पहले गांव के दीर्घायु वृद्ध तीन बार ढोल पीटते हैं । इस का अर्थ यह है कि पहली बार वायुमंडल देवता की पूजा के लिये ढोल पीटा जाता है , दूसरी बार भूमि-देवता की पूजा के लिए ढोल पीटा जाता है , जब कि तीसरी बार पवित्र तांबे ढोल की पूजा के लिये इसे पीटा जाता है । तीन बार ढोल पीटने के बाद पवित्र ढोल हमारे लिये शानदार फसल और अमन चैन को सुनिश्चित कर सकता है ।