12 कहावत से जुड़ी कथा--छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ

2017-12-12 21:30:06 CRI

12 कहावत से जुड़ी कथा--छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ

छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ  曲江探花

 “छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ”कहावत से जुड़ी एक कहानी है, जिसे चीनी भाषा में“छ्युच्यांग थानहुआ”(qǔ jiāng tàn huā) कहा जाता है। इसमें“छ्युच्यांग”प्राचीन काल में थांग राजवंश की राजधानी छांगआन यानी आज उत्तर पश्चिम चीन के शानशी प्रांत की राजधानी शीआन में एक नगर का नाम है, जो शीआन के दक्षिण पूर्व में स्थित है। थांग राजवंश में मशहूर शाही उद्यान इसी जगह पर निर्मित हुआ था। छ्युच्यांग के भीतर छ्युच्यांग तालाब, बड़ा जंगली हंस पगोडा, जो महा छिअन मठ में स्थित है तथा महा-थांग हिबिस्कुस उद्यान आदि दर्शनीय स्थल और प्राचीन अवशेष सुरक्षित हैं।“थानहुआ”(tàn huā) तत्कालीन समय में राष्ट्रीय परीक्षा में तीसरा स्थान प्राप्त करने वाले के लिए सम्मान में एक विशेष शब्द है।

ईंसवीं सातवीं शताब्दी के स्वी राजवंश में चीन के सम्राट ने देश के प्रशासन के लिए प्रतिभाओं के चुनाव की परीक्षा व्यवस्था यानी ख च्वी (kē jǔ) व्यवस्था की शुरूआत की। इस व्यवस्था के तहत विभिन्न स्तरों की परीक्षाओं से प्रतिभाशाली लोगों का चुनाव किया जाता था और आगे उन्हें विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था।

 स्वी राजवंश के बाद थांग राजवंश यानी वर्ष 618 से वर्ष 907 तक के समय में इस परीक्षा व्यवस्था का बड़ा विकास किया गया , साधारण पढ़े लिखे लोगों को भी अधिकारियों की भांति विभिन्न स्तरीय परीक्षाओं में दाखिला होने की अनुमति दी गई और परीक्षा में पास होने पर उन्हें उन्हें अधिकारी नियुक्ति किया जाता था।

चीन के थांग राजवंश में अधिकारी परीक्षा नीचे से लेकर ऊपर तक कुल तीन स्तरों की होती थी, जिनके नाम क्रमशः श्यो छाई(xiù cai), च्वी रन (jǔ rén) और चिन-श (jìn shì) थे। नीचे से ऊपर तक की तीनों स्तरों की परीक्षाओं में पास होने के बाद जो श्रेष्ठ होते थे, उन्हें अंत में सम्राट के सम्मुख परीक्षा के लिए पेश किया जाता था। इसके उपरांत परीक्षा पास करने वालों को विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जाता था। परीक्षा के ऊपरी स्तर यानी चिन-श की उपाधि पाना सभी बुद्धिजीवियों की अभिलाषा थी, क्योंकि इस स्तर की परीक्षा पास करने के बाद अच्छे पद के अधिकारी बन सकते थे। लेकिन यह एक कठोर परीक्षा भी होती थी, कुछ लोग जिन्दगी भर कोशिश करने के बाद भी परीक्षा पास नहीं कर पाते थे। सम्राट के सम्मुख परीक्षा लेने के बाद सम्राट खुद सबसे श्रेष्ठ तीन बुद्धिजीवियों को चुनता था। पहला स्थान पाने वाले को च्वांग युआन(zhuàng yuan) कहा जाता थी, जबकि दूसरा स्थान पाने वाले को वांग यान(bǎng yǎn) कहा जाता था और तीसरा स्थान प्राप्त करने वाले को थान हुआ (tàn huā) कहा जाता था।

थांग राजवंश की चिन-श(jìn shì) स्तरीय परीक्षा राजधानी छांगआन नगर में होती थी, जो हर साल के पहले महीने में शुरू होती थी और दूसरे महीने में परीक्षा के परिणाम घोषित किए जाते थे। उस वक्त चीन में वसंत ऋतु होती थी, सम्राट परीक्षा में पास हुए लोगों के सम्मान में छ्युच्यांग उद्यान में शानदार दावत देता था।

12 कहावत से जुड़ी कथा--छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ

कहावत से जुड़ी कथा--छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ

छ्युचांग नहर छांगआन शहर के दक्षिण पूर्व भाग में बहती थी। नहर उद्यान के अन्दर आकर घुमावदार तालाब के रूप में बहने लगी, उद्यान के पास सुन्दर फूलों की क्यारी थी। मशहूर छिअन मठ, बड़ा जंगली हंस पगोडा और छोटा जंगली हंस पगोडा आसपास खड़े हुए थे। सम्राट, राज्य के मंत्री और कुलीन लोग अकसर यहां घूमने आते थे। बड़ी संख्या में बुद्धिजीवी और कवि भी छ्युच्यांग उद्यान में मदिरा पीने तथा कविता लिखने आते थे।

सम्राट की दावत में घुमावदार नहर के पानी पर मदिरा का प्याला रखा जाता था, जो पानी के प्रवाह के साथ आगे बहता जाता था। मदिरा का प्याला जिस किसी चिन-श(jìn shì) के पास रुका, तो उस चिन-श को मदिरा पीने के बाद एक कविता बनानी होती थी। दावत के दौरान दो युवा और खूबसूरत चिन-श फूलों की क्यारी से फूल तोड़ कर लाते थे और सभी चिन-श की टोपी पर लगा देते थे। इस तरह यह गतिविधि थानहुआ की दावत कहलाती थी। चीनी भाषा में थानहुआ का अर्थ है फूल चुनना। वे दोनों युवा चिन-श फूल का दूत कहे जाते थे। तत्कालीन बुद्धिजीवी वर्ग में थानहुआ की दावत एक असाधारण सम्मानजनक कार्यवाही समझी जाती थी।

एक साल , छ्युच्यांग उद्यान की यह दावत समाप्त होने के बाद नव निर्वाचित चिन-श(jìn shì) छिअन मठ में सैर करने आए। बड़े जंगली हंस पगोडा के पास आने पर एक चिन-श को बड़ा उत्साह आया और उसने अपना नाम पगोडे की भित्ति पर खोद कर लिख दिया। इससे सीखते हुए बाद के सभी चिन-श छ्युच्यां की थानहुआ दावत के बाद छिअन मठ के बड़े जंगली हंस पगोडे के स्तंभ पर अपना-अपना नाम खोद कर लिखते थे। जो चिन-श आगे मंत्री या उच्च पदाधिकारी बनते, उनके नाम लाल रंग से दोबारा लिखे जाते थे।

थांग राजवंश में बुद्धिजीवी लोग छ्युच्यां के थानहुआ दावत और बड़े जंगली हंस पगोडे पर अपना नाम लिखना एक असाधारण गौरव समझते थे। थांग राजवंश के महान कवि पाई च्युयी (bái jū yì) अन्य 16 प्रतिभाओं के साथ परीक्षा में खरे उतर कर चिन-श चुने गए। 17 लोगों में वह सबसे जवान थे, जो 27 साल के थे। उन्होंने अपनी एक कविता में बड़े गर्व के साथ अपना मनोभाव व्यक्त किया:

छिअन मठ के पगोडे पर नाम लिखे हुए हैं

सत्रह व्यक्तियों में उम्र सबसे छोटी ही है मेरी

आज के उत्तर पश्चिम चीन के शानशी प्रांत की राजधानी शीआन शहर में सुरक्षित बड़े जंगली हंस पगोडे की भित्ति पर भी प्राचीन चिन-श के नाम लिखे देखे जा सकते हैं।

थांग राजवंश में अधिकारियों की नियुक्ति के लिए जो परीक्षा व्यवस्था लागू होती थी, उसने साधारण बुद्धिजीवियों को राज्य के प्रशासन के काम में भाग लेने का मौका प्रदान किया था और तत्कालीन राजवंश का प्रशासन स्तर उन्नत किया गया था। लेकिन सामंती राजवंशों के उत्थान पतन के साथ-साथ यह परीक्षा व्यवस्था भी पतित और भ्रष्ट हो गई और वह रूढ़िवादी व्यवस्था बन गई, जिसका सामाजिक विकास पर बड़ा कु-प्रभाव पड़ा था। चीन के अंतिम सामंती राजवंश यानी छिंग राजवंश (वर्ष 1644 से वर्ष 1912 तक) के पतन के साथ यह व्यवस्था भी रद्द कर दी गई।

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बौद्ध धर्म का मशहूर मंदिर-- महा छिअन मठ 

 “छ्युच्यांग नहर पर थानहुआ”नाम की कहानी में महा छिअन मठ और इसमें बिग जंगली हंस पगोडा के बारे वर्णन किया गया है, महा छिअन मठ चीनी भाषा में“ता छिअन सी”कहा जाता है। इसमें“ता”का अर्थ है बड़ा और“छिएक”का अर्थ है मातृ-प्रेम, जबकि“सी”का अर्थ है मठ या मंदिर। महा छिअन मठ में बिग जंगली हंस पगोडा खड़ा हुआ है, चीनी भाषा में इसे“ता यान था”कहा जाता है। इसमें“ता”का अर्थ है बड़ा या बिग,“यान”का अर्थ है जंगली हंस और“था”का अर्थ पगोडा है।  

 ऐतिहासिक ग्रंथों के अनुसार, महा चीअन मंदिर का निर्माण वर्ष 648 में हुआ । इस तरह यह लगभग 1300 वर्ष पुराना है। महा छिअन मठ चीन के स्वेई राजवंश में वू लोओ मंदिर कहलाता था। थांग राजवंशी राजा ली ची ने युवराज बनने पर अपनी मां की याद में इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। इस तरह इसे“छिअन”यानी मातृ-प्रेम कहा जाता है।

चीन और भारत में दोनों लोकप्रिय रहे महाचार्य ह्वेन त्सांग और महा छिअन मठ के बीच गहरे संबंध मौजूद थे। महाचार्य ह्वेन त्सांग का जन्म वर्ष 600 में चीन के स्वेई राजवंश के दौरान हनान प्रांत में हुआ। स्वई राजवंश का शासन काल ईंसवी बाद 581 से 618 तक रहा। इसके बाद थांग राजवंश रहा। कहा जाता है कि महाचार्य ह्वेन त्सांग को जन्म देते समय उनकी मां ने सपने में सफ़ेद कपड़े पहने एक आचार्य के दर्शन किये। आचार्य मां से विदा लेने लगे तो मां ने उससे कहा:“तुम तो मेरे पुत्र हो, यहां से कहां जाओगे?”इस पर आचार्य ने कहा“मैं बौद्ध ग्रंथों की खोज में पश्चिम की ओर जाऊंगा।”

  महाचार्य ह्वेन त्सांग ने बचपन से ही अपनी विलक्षण बुद्धि का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया था। कोई भी पुस्तक एक बार पढ़ने के बाद उन्हें याद हो जाती थी। तेरह वर्ष की उम्र में वे भिक्षु बने और 27 वर्ष की आयु में उन्हें तीन बौद्ध ग्रंथ कंठस्थ हो चुके थे। इस लिए लोग उन्हें“थांग सान चांग”यानी“तीन बौद्ध ग्रंथों का आचार्य”कह कर बुलाते थे। थांग राजवंश के पहले राजा काओ चू (gāo zǔ) के शासन काल में वर्ष 618 में ह्वेन त्सांग अपने जन्मस्थान हनान से राज्य की तत्कालीन राजधानी छांगआन आ गए, जहां उनकी मुलाकात भारत से आए एक आचार्य से हुई। इस भारतीय आचार्य से उन्होंने भारतीय बौद्ध मत की औऱ ज्यादा जानकारी हासिल की।    

इसके बाद उनके मन में बौद्ध मत के जन्मस्थान----भारत के बौद्ध ग्रंथों के अध्ययन की जिज्ञासा उत्पन्न हुई ।

महाचार्य ह्वेन त्सांग नव स्थापित थांग राजवंश की सरकार से भारत की यात्रा की मांग की लेकिन उनकी इस मांग को सरकार की पुष्टि नहीं मिली। बाद में ह्वेन त्सांग थांग राजवंश की अनुमति के बिना अकेले पश्चिम की यात्रा पर चल निकले। तीन सालों की लम्बी और मुश्किल पद यात्रा के बाद वे भारत के नालंदा शहर पहुंचे, जो तब बौद्ध धर्म का एक पवित्र स्थल था। भारत में  लगभग

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महा छिअन मठ में बिग जंगली हंस पगोडा

17 साल के अध्ययन के बाद महाचार्य ह्वेन त्सांग 657 भारतीय बौद्ध ग्रंथों के साथ चीन वापस लौटे।

स्वदेश लौटे महाचार्य ह्वेन त्सांग का तत्कालीन राजा थांग थाई चोंग(táng tài zōng) ने शानदार स्वागत किया। राजा ने महाचार्य को महा छिअन मठ का पहला मठाधीश नियुक्त किया और मठ में उसके लिए एक विशेष पगोडे का निर्माण करवाया। यही आज का बड़ा जंगली हंस पगोडा है। बड़ा जंगली हंस पगोडा वर्ष 625 में पश्चिमी चीन के बौद्ध पगोडा शैली के अनुरूप निर्मित हुआ।

वास्तव में जंगली हंस पगोडे का निर्माण मुख्य तौर पर महाचार्य ह्वेन त्सांग द्वारा भारत से लाए गए बौद्ध ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए किया गया था। पगोडे की उंचाई 64.7 मीटर है और रूप बहुत सादा है फिर भी यह दिखने में विशाल लगता है। यह तत्कालीन एशिया का सबसे ऊंचा और बहुत मशहूर वास्तु था। काष्ठ और मिट्टी मिश्रित यह पगोडा प्राचीन थांग राजवंश की राजधानी छांगआन का प्रतीक माना जाता रहा और आज के शीआन शहर का भी प्रतीक बना हुआ है। बड़े जंहली हंस के बारे में एक कहानी भी प्रचलित है।

किंवदंती है कि महाचार्य ह्वेन त्सांग को भारत की यात्रा के दौरान रेगिस्तान पार करना पड़ा। रेगिस्तान में चलते समय उन्हें बहुत प्यास लगी। लेकिन उनके पास का पानी खत्म हो गया था। रेगिस्तान में कहां पानी मिलता? आचार्य ने हाथ जोड़कर भगवान बुद्ध का नाम लिया तो उनकी प्रार्थना के जवाब में अचानक आकाश में एक जंगली हंस का दल उड़ता आया और उसने गाते हुए महाचार्य से आगे की ओर बढ़ने को कहा। महाचार्य जंगली हंसों के पीछे-पीछे चलने लगे। थोड़ी देर बाद उन्हें एक तालाब मिला। इसके बाद जंगली हंस गाते हुए दूर उड़ गये। यहां अपनी प्यास बुझाकर महाचार्य भारत की राह पर फिर चल पड़े। इस वजह से ह्वेन त्सांग के स्वदेश लौटने के बाद जब महा छिअन मठ में एक पगोडा स्थापित किया गया, तो महाचार्य ने रेगिस्तान में मिले जंगली हंसों की स्मृति में इसे जंगली हंस पगोडा नाम दिया और स्वयं 11 साल तक उसमें रहकर भारत से साथ लाए 600 से ज्यादा बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया।

 

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