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आज के इस कार्यक्रम में लक्ष्मी नगर दिल्ली के राकेशवर वर्मा, मऊ उत्तर प्रदेश के मोहम्मद दानिश, कोआथ बिहार के आशीर्वाद रेडियो लिसनर्स क्लब के राकेश रौशन के पत्र शामिल हैं।
लक्ष्मी नगर दिल्ली के राकेशवर वर्मा का पत्र उठाते हैं। वे पूछते हैं कि आप की राय में भारत-रूस संबंध कैसा रहा है?
भैया,यहां हम सिर्फ अपने निजी विचार प्रकट करते हैं, सरकार की ओर से नहीं। जैसाकि आप जानते हैं कि शीत युद्ध की समाप्ति के बाद दुनिया में अनेक बुनियादी राजनीतिक और आर्थिक बदलाव आए, लेकिन भारत-रूस संबंधों की गर्मजोशी यथावत कायम रही है। दोनों देशों के नेताओं की लगातार एक दूसरे के यहां मैत्रीपूर्ण यात्राएं इसी बात की सूचक हैं। दुनिया में तमाम उथल-पुथल के बावजूद भारत और रूस एक दूसरे के भरोसेमंद साथी साबित हुए हैं। 1992 में सोवियत संघ के पतन के बाद अमरीका दुनिया की एकमात्र महाशक्ति बन बैठा और कुछ पर्यवेक्षकों को आशंका थी कि भारत के पास अमरीकी दामन थामने के अवाला कोई चारा नहीं रहेगा, लेकिन यह आशंका निर्मूल सिद्ध हुई है।भारत जहां एक तरफ अपनी विदेश नीति की स्वतंत्रा बरकरार रखने में कामयाब रहा, वहीं रूस के साथ उस के रिश्ते मधुर बने रहे। वैश्वीकरण की लहर ने विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्थयाओं को एक दूसरे से अधिकाधिक जोड़ा है, जिस के चलते भारत को बड़े पैमाने पर विदेशी पूंजी-निवेश व टेक्नालॉजी जुटाने, निर्यात वृद्धि आदि मामलों में भारी मदद मिली। इस के बावजूद विश्व राजनीति में भारत के लिए भरोसेमंद मित्र-देश की अहमियत कम नहीं हो सकती। इस कसौटी पर रूस लगातार खरा उतरा है। उस ने अनेक क्षेत्रीय व अंतरराष्ट्रीय मामलों में भारत का सच्चा हमदर्द बनकर सदैव सहयोग दिया है।
तेजी से विकास करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में भारत का दूसरा स्थान है और 2020 तक वह एक आर्थिक महाशक्ति बनना चाहता है। इस के मद्देनजर उस की ऊर्जा जरूरतें निश्चित तौर पर काफी बढेंगी। विश्व बाजार में पिछले दो-तीन सालों से कच्चे तेल के दाम जिस ढंग से बेतहाशा बढे हैं, उस से उस की अर्थव्यवस्था के सामने नयी चिंताएं पैदा हुई हैं। रूस तमिलनाडु में कुंडाकुलम परमाणु बिजली परियोजना में पहले से सहयोग दे रहा है और यदि यह सिलसिला भविष्य में भी आगे बढता है, तो भारत को काफी राहत मिलेगी।
भारत और रूस ने अनेक बार सैनिक व टेक्नीकल सहयोग के तहत भावी शस्त्रास्त्र प्रणालियों के विकास व निर्माण के प्रति सहमति प्रकट की है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है। क्योंकि अमरीका के साथ हुए रक्षा व परमाणु समझौतों में जिस तरह की नयी शर्तें जोड़ कर बुश सरकार भारत पर दबाव डाल रही है, उस से कटु अनुभव ही सामने आया है। ऱूस के साथ अब तक का सहयोग इस बात का साक्षी है कि एक बार समझौता होने पर उस ने नयी शर्तें कभी नहीं जोड़ीं। हमारे विचार में भारत-रूस संबंधों में प्रगाढ़ता का यह एक प्रमुख रहस्य है।
मऊ उत्तर प्रदेश के मोहम्मद दानिश और कोआथ बिहार के आशीर्वाद रेडियो लिसनर्स क्लब के राकेश रौशन दोनों ने सवाल किया है कि चीन के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे?
दोस्तो, चीन में राष्ट्रपति की जगह राष्ट्राध्यक्ष हैं। वे चीनी राष्ट्रीय जन प्रतिनिधि सभा की स्थाई कमेटी द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और उन का कार्यकाल 5 साल का होता है। चीन के प्रथम राष्ट्राध्यक्ष का नाम मौ त्जे-तुंग है। उन का जन्म सन् 1893 में दक्षिणी चीन के हूनान प्रांत के एक किसान परिवार में हुआ था। उन्हों ने प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में तथा मीडिल स्कूल की शिक्षा हूनान प्रांत की राजधानी छांगशा में पाई। युवावस्था में उन्हों ने पेइचिंग विश्वविद्यालय में पढने की कोशिश की। पेइचिंग में रहने के दौरान उन का मार्क्सवाद पर विश्वास जगा। सन् 1921 में वे और अन्य 11 कम्युनिस्टों ने पूर्वी चीन के शांघाई शहर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रथम राष्ट्रीय कांग्रेस में भाग लिया।
चीनी क्रांति के लिए मौ त्जे-तुंग ने मार्क्सवाद और रूसी समाजवादी क्रांति के अनुभवों से सीख लेते हुए सृजनात्मक तौर पर देहातों से शहरों को घेरने तथा सशस्त्र बल से सत्ता हथियाने के क्रांतिकारी सिद्धांत का प्रर्वतन किया। 20वीं शताब्दी के 20 वाले दशक के अंतिम दौर में उन के नेतृत्व में किसानों के कई सशस्त्र विद्रोह छिड़े और देहाती क्षेत्रों में व्यापक क्रांतिकारी केन्द्र कायम किए गए, जहां जमीनदारों की भूमि का किसानों में बंटवारा किया गया। 30 वाले दशक में जापानी सैन्यवादियों ने पूर्वोत्तर चीन पर कब्जा कर लिया। इस का मुकाबला करने के लिए मौ त्जे-तुंग की रहनुमाई वाली चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की लाल-सेना ने विश्वविख्यात 12 हजार किलोमीटर का लम्बा अभियान चलाया, जिसे समूची जनता का समर्थन मिला था। सन् 1937 में जापान ने चीन पर पूरी तरह आक्रमण कर दिया। चीनी राष्ट्र के भारी संकट की इस नाजुक घड़ी में मौ त्जे-तुंग के नेतृत्व में लाल-सेना ने जापानी आक्रमणकारियों को चीन से खदेड़ दिया।लेकिन इस के बाद चीन की कोमिनतांग सरकार ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिली-जुली सरकार के गठन से साफ इन्कार कर दिया और अपनी ताकतवर सैनिक शक्ति तथा अमरीका के समर्थन के बलबूते देश को गृहयुद्ध में धकेल दिया। पर मौ त्जे-तुंग की अगुवाई में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और चीनी जन मुक्ति सेना ने व्यापक चीनी जनता के जबरदस्त समर्थन से 3 सालों के भीतर कोमिनतांग की शक्तिशाली सेना को परास्त कर दिया और थाईवान को छोड़ चीन के अन्य सभी भागों पर अधिकार कर लिया। सन् 1949 की पहली अक्तूबर को मौत्जेतुंग ने चीन लोक गणराज्य की स्थापना की घोषणा की। कुछ दिन बाद वे चीन की केंद्रीय सरकार के अध्यक्ष चुने गए।
अच्छा,अध्यक्ष मौ त्जे-तुंग की चर्चा पर हम यहीं रोक लगाते है,इसलिए कि वे एक महान विभूति थे और अगर हम ने उन के जीवन के किसी पहलू को छुआ तो बातों की झड़ी लग जाएगी और एक घंटा तो दूर एक दिन का समय भी अपर्याप्त होगा। हम इतना ज़रुर बताते चलें कि उन के जीवन पर अनेक किताबें उपलब्ध हैं।

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