14 जनवरी 2021

2021-01-13 19:42:20

अनिलः सबसे पहले यह जानकारी। ब्राजील का सैंटोस शहर महान फुटबॉलर पेले के वजह से दुनियाभर में मशहूर है। यह शहर पेले का जन्मस्थान है, लेकिन इस शहर में ऐसी एक और अनोखी चीज है, जो इस शहर को आकर्षण का केंद्र बनाती है। दरअसल, यहां की इमारतें लोगों को काफी आकर्षित करती हैं। अपनी अनोखी बनावट के कारण ये इमारतें चर्चा का विषय बन चुकी हैं। दरअसल, सैंटोस शहर की इमारतें पीसा की मीनार की तरह टेढ़ी हैं। ये इमारतें पिछले काफी समय से ऐसी ही हैं। समय के साथ-साथ इन इमारतों में समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं और ये झुकती भी जा रही हैं। सैंटोस स्काइलाइन करीब 651 इमारतों से बनी हुई है। कुछ इमारतें 5 इंच तक झुकी हैं इसलिए ज्यादा ध्यान में नहीं आती मगर कुछ इमारतें 2 मीटर तक झुकी हुई हैं, जो देखने पर टेढ़ी नजर आती हैं। सबसे खास बात ये है कि सैंटोस शहर के स्थानीय प्रशासन द्वारा इन इमारतों को सुधारने के लिए कोई भी कदम नहीं उठाया जा रहा है,क्योंकि उसके मुताबिक ये इमारतें बिल्कुल सुरक्षित हैं।1950 और 1960 के दशक के दौरान जब ये अपार्टमेंट बन रहे थे, तो आर्किटेक्ट्स ने इन्हें बनाने के लिए सबसे सस्ता तरीका अपनाया। ऐसा कहा जाता है कि खर्चा बचाने के लिए आर्किटेक्ट्स ने इमारतों की नींव गहरी नहीं बनाई। इसकी जगह पर उसने कंक्रीट पैडिंग का इस्तेमाल किया। कंक्रीट की पैडिंग अधिक गहरी नहीं होती है। ये जमीन में कुछ ही मीटर नीचे जाती है। ये इमारतें रेत की 7 मीटर मोटी परत पर बनी हुई हैं, जो चिकनी मिट्टी पर स्थित है। इस वजह से समय के साथ ये इमारतें हर साल झुक रही हैं।नीलमः अब अगली जानकारी। रासायनिक कीटनाशकों की खोज से पहले फसलों में लगने वाले कीड़ों को खत्म करने के लिए किसान छोटे शिकारी जीवों पर निर्भर रहे हैं। वही प्रथा अब नए रूप में सामने आई है। दक्षिण पूर्व एशिया में जैव विविधता से समृद्ध जंगलों में लाखों किसान कसावा की खेती पर निर्भर हैं। इस नकदी फसल की खेती एक-दो हेक्टेयर जमीन वाले छोटे किसान भी करते हैं और हजारों हेक्टेयर वाले बड़े किसान भी।

कसावा के स्टार्च का इस्तेमाल प्लास्टिक और गोंद बनाने में होता है। कसावा को जब पहली बार दक्षिण अमेरिका से लाया गया तब यहां के किसान बिना किसी कीटनाशक की मदद के इसकी खेती करते थे। 2008 से इसमें मिलीबग कीड़े लगने लगे और फसल बर्बाद होने लगी। घाटे की भरपाई के लिए किसानों ने जंगल की जमीन में घुसपैठ करनी शुरू की ताकि थोड़ी ज्यादा फसल ले सकें।बीजिंग के पौध संरक्षण संस्थान में जैव नियंत्रण विशेषज्ञ क्रिस वाइकहायस का कहना है कि कुछ क्षेत्रों में जंगल की कटाई बहुत तेज हो गई। कंबोडिया में जंगल कटाई की दर सबसे ज्यादा है। मिलीबग कीड़ों ने कसावा किसानों की रोजी-रोटी के साथ-साथ इस क्षेत्र के देशों की अर्थव्यवस्था पर भी असर डाला। स्टार्च के वैकल्पिक स्रोतों, जैसे मक्का और आलू की कीमत बढ़ गई। थाईलैंड दुनिया में कसावा स्टार्च का नंबर एक निर्यातक है। वहां इसके दाम तीन गुणा बढ़ गए।

वाइकहाइस कहते हैं, "जब कोई कीड़ा पैदावार 60 से 80 फीसदी कम कर दे तो आपको बड़ा झटका लगेगा।" समाधान के तौर पर दक्षिण अमेरिका में मिलीबग के प्राकृतिक शत्रु, एक मिलीमीटर लंबे परजीवी ततैया (एनागायरस लोपेजी) की खोज करनी थी। यह छोटा ततैया कसावा मिलीबग पर ही अंडे देता है। 2009 के आखिर में इस ततैये को थाईलैंड के कसावा खेतों में छोड़ा गया और आते ही इसने काम शुरू कर दिया। इस बात की विस्तृत जानकारी नहीं है कि ततैये कितनी तेजी से मिलीबग की आबादी को साफ कर देते हैं। 2010 में पूरे थाईलैंड में हवाई जहाजों से लाखों ततैये छोड़े गए। जल्द ही उनका असर दिखने लगा।

अनिलः अब आपको रूबरू करवाते हैं अगली जानकारी से। तुर्की वैसे तो एक बहुत ही खूबसूरत देश है, जो यूरेशिया में स्थित है। दरअसल, यूरेशिया एक भौगोलिक भूखंड है, जो यूरोप और एशिया महाद्वीप को मिलाकर बना है। इस देश का कुछ भाग यूरोप में और अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है। ऐसे में इसे यूरोप और एशिया के बीच का 'पुल' भी कहा जाता है। क्या आप जानते हैं कि तुर्की को 'यूरोप का रोगी' यानी 'यूरोप का मरीज' भी कहा जाता है? जी हां, इसके पीछे एक बड़ा ही रोचक इतिहास है। आज हम आपको इस लेख के माध्यम से बताएंगे कि आखिर तुर्की को ऐसा अजीबोगरीब नाम क्यों मिला? तुर्की का इतिहास काफी पुराना है। ईसा से पूर्व यूनानियों का बसाव और फिर स्थानांतरण और ईसा के बाद सन् 800-1400 तक तुर्क जाति का प्रादुर्भाव तुर्की के इतिहास की प्रमुख लिखित घटना है। माना जाता है कि 1200 ईसा पूर्व के आसपास होमर के ओडिसी में वर्णित 'ट्रॉय की लड़ाई' भी तुर्की के पश्चिमी तट पर ट्रॉय के वासियों और यूनानी द्वीपों पर बसे साम्राज्यों के बीच हुई थी। पूर्व में तुर्की कई साम्राज्यों के आधीन रहा है। 530 ईसा पूर्व में यह ईरान के फारसी साम्राज्य का हिस्सा बना था और कई सालों तक यह यूनानियों द्वारा संघर्ष के कारण ग्रीक और ईरानी साम्राज्यों में बंटा रहा। 330 ईसा पूर्व में फिर तुर्की सिकंदर महान के यूनानी (मेसीडोनी) साम्राज्य के अंदर अंतर्गत आ गया और फिर बाद में यह रोमन साम्राज्य और सासानी साम्राज्य का भी हिस्सा बना। सासानी साम्राज्य के अंत (635 ईस्वी) के बाद यहां इस्लाम का प्रचार हुआ और फिर औगुज, सल्जूक और उस्मानी तुर्क सुन्नी इस्लाम में परिवर्तित हो गए। 16वीं शताब्दी के आते-आते तुर्क या ऑटोमन साम्राज्य (उस्मानी साम्राज्य) ने पूरे तुर्की पर अपना कब्जा जमा लिया था। 18वीं शताब्दी तक तो यह साम्राज्य अति विशाल था और शक्तिशाली बना रहा, लेकिन बाद में तुर्की सुल्तानों की विलासी प्रवृति और लोगों पर अत्याचार ही इस विशाल साम्राज्य के पतन का कारण भी बन गया। ऑटोमन सुल्तानों का अत्याचार तुर्की पर इतना बढ़ गया कि यहां रहने वाले लोग धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता के लिए आंदोलन करने लगे। इससे ऑटोमन साम्राज्य कमजोर पड़ने लगा। 19वीं सदी में इस साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया लगातार बढ़ती रही और फिर धीरे-धीरे तुर्की की हालत इतनी खराब हो गई कि इसे 'यूरोप का मरीज' कहा जाने लगा।

नीलमः अब एक और जानकारी। ये दुनिया रहस्यों से भरी पड़ी है। धरती पर कई ऐसे रहस्यमयी जगह हैं, जिसके बारे में बहुत कम ही लोगों को पता है। आज हम आपको एक ऐसे ही अनोखे गांव के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि वहां जो भी गया, कभी वापस लौटकर नहीं आया। इस रहस्यमयी गांव को 'मुर्दों का शहर' भी कहते हैं।दरअसल, यह गांव रूस के उत्तरी ओसेटिया के दर्गाव्स में है। यह इलाका बेहद ही सुनसान है। डर की वजह से इस जगह पर कोई भी आता-जाता नहीं है। ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों के बीच छिपे इस गांव में सफेद पत्थरों से बने करीब 99 तहखाना नुमा मकान हैं, जिसमें स्थानीय लोगों ने अपने परिजनों के शव दफनाए थे। इनमें से कुछ मकान तो चार मंजिला भी हैं।बताया जाता है कि इन कब्रों को 16वीं शताब्दी में बनवाया गया था। यह एक विशाल कब्रिस्तान है। कहते हैं कि हर इमारत एक परिवार से संबंधित है, जिसमें सिर्फ उसी परिवार के सदस्यों को दफनाया गया है।इतना ही नहीं इस जगह को लेकर स्थानीय लोगों के बीच तरह-तरह की मान्यताएं हैं। उनका मानना है कि इन झोपड़ीनुमा इमारतों में जाने वाला कभी लौटकर नहीं आता। हालांकि, कभी-कभार पर्यटक इस जगह के रहस्य को जानने के लिए आते रहते हैं।

अनिलः जानकारी देने का सिलसिला यहीं संपन्न होता है। अब बारी है श्रोताओं की टिप्पणी की। मित्रों, अब समय हो गया है, श्रोताओं के पत्र शामिल करने का। पहला पत्र हमें भेजा है, खंडवा मध्य प्रदेश से दुर्गेश नागनपुरे ने। लिखते हैं, नमस्कार और वेरी गुड इवनिंग। मैं हर गुरुवार को मन लगाकर टी टाइम प्रोग्राम सुनता हूं। आपके प्रोग्राम में रोचक जानकारी सुनते हुए हम गरम चाय पीते हैं। आगे लिखते हैं, हमने 7 जनवरी का प्रोग्राम बहुत ध्यानपूर्वक सुना। कार्यक्रम में आपने बताया कि जापान में बच्चों से ज्यादा जानवरों को महत्व दिया जा रहा है,वहां के लोग जानवरों से बेहद प्यार करते हैं। साथ ही दूसरी जानकारी के अंतर्गत आपने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के कार्यो के बारे में बेहतरीन जानकारी दी। वहीं बर्गर की कीमत सुनकर बेहद आश्चर्य हुआ कि एक बर्गर की कीमत भी इतनी हो सकती है।इसके साथ ही कार्यक्रम में हिन्दी गीत,मजेदार जोक्स और श्रोताओं की टिप्पणी सुनी। साथ ही भाई वीरेंद्र मेहता जी का पत्र बहुत दिन बाद सुनने को मिला, सुनकर बेहद खुशी हुई। धन्यवाद। 

नीलमः अब वक्त हो गया है अगला पत्र शामिल करने का। जिसे भेजा है खुर्जा यूपी से तिलकराज अरोड़ा ने। लिखते हैं, भाई अनिल पाण्डेय जी बहन नीलम जी, सप्रेम नमस्ते।नए साल का पहला कार्यक्रम आपकी सुंदर प्रस्तुति में सुनकर दिल खुशी से झूम उठा। कार्यक्रम बेहद पसंद आया। जापान में बच्चों की जन्म दर लगातार कम हो रही है और कुत्ते-बिल्लियां पालने का शौक बढ़ गया है, बच्चों से अधिक रजिस्ट्रेशन पालतू जानवरों के हो रहे हैं। यह जानकारी प्रशंसा योग्य लगी।अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा लूनर आउट पोस्ट कंपनी को चाँद की सतह से चट्टानें चुनकर लाने का ठेका दिया है। यह जानकारी सुनी बहुत रोचक लगी।4330 रुपये यानी 19 अमेरिकी डॉलर एक बर्गर की कीमत सुनकर बहुत ही आश्चर्य हुआ। यह बर्गर तो अमीर लोग ही खा सकते हैं, गरीब लोग तो बस सपने में ही ऐसा सोच सकते हैं। कार्यक्रम में गीत सुनकर बहुत ही आनंद आया। वहीं सभी श्रोताओं के पत्र बेहतरीन लगे। कार्यक्रम में जोक्स भी शानदार लगे। बेहतरीन कार्यक्रम सुनवाने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। अरोड़ा जी पत्र भेजने और प्रोग्राम के बारे में तारीफ करने के लिए धन्यवाद। 

अनिलः अब पेश है हमारे पुराने श्रोता केसिंगा से सुरेश अग्रवाल का पत्र। लिखते हैं,7 जनवरी को "टी टाइम" का नव-वर्ष प्रवेशांक भी सुना, बेहद रोचक और उम्दा लगा। संभवतः अगले सप्ताह से मैं भी कार्यक्रमों पर फिर से विस्तृत टिप्पणी करने की स्थिति में आ जाऊँ। बहरहाल, मैं आपका ध्यान सीआरआई हिन्दी वेबसाइट पर साप्ताहिक "टी टाइम" के आज के अंक की तिथि 7 जनवरी के बजाय 7 दिसम्बर 2021 लिखे होने सम्बन्धी सामान्य त्रुटि की ओर अवश्य खींचना चाहूँगा। कृपया इसे ठीक करवाने का कष्ट करें। धन्यवाद। इस ग़लती की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद। हमने इसे सुधार दिया है, कृपया देख लें। सुरेश जी, पत्र भेजने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया।

नीलमः अब अंत में पेश है बिराटनगर नेपाल के श्रोता उमेश रेग्मी द्वारा भेजा गया ख़त। लिखते हैं सबसे पहले नए साल की शुभकामनाएं। आपने बताया कि जापान में बच्चों की जन्मदर लगातार कम होते जा रही है और  पालतू जानवरों की देखभाल भी शानदार तरीके से होती है, संबंधित जानकारी सुनी। अनूठी जानकारी देने के लिए धन्यवाद।   आगे लिखते हैं कि मैने कार्यक्रम वेबसाइट पर सुना। लेकिन आपने जो ऑडियो पोस्ट किया है, उसमें 07 दिसंबर 2021 लिखा गया है, कृपया इसे आप चेक कर लें। रेग्मी जी त्रुटि की ओर ध्यान दिलाने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया। वैसे यह ग़लती सुधार दी गयी है। फिर भी धन्यवाद।

अनिलः श्रोताओं की टिप्पणी के बाद समय हो गया है जोक्स का।   पहला जोकहरीश: तुम्हारी आंख क्यों सूजी हुई है ?पप्पू: कल मैं अपनी पत्नी के जन्मदिन पर केक लाया था।हरीश: लेकिन इसका आंख सूजने से क्या संबंध है?पप्पू: मेरी पत्नी का नाम तपस्या है लेकिन केक वाले बेवकूफ दुकानदार ने लिख दिया “हैप्पी बर्थडे समस्या”!

दूसरा जोकपति- तुम्हारे पापा मानते क्यों नहीं? जले पर नमक छिड़कने की आदत गई नहीं अब तक उनकी।पत्नी- क्यों क्या हुआ?पति- आज फिर से पूछ रहे थे कि मेरी बेटी से शादी करके खुश तो हो न?तीसरा जोकलड़का जैसे ही कॉलेज में पहुँचा,खुशी के मारे उछलने लगादोस्त – क्या हुआ इतना खुश कैसे है ?लड़का – आज पहली बार मुझसे किसी लड़की ने मेट्रो में बात की……दोस्त – वाह भाई क्या बात हुई ?लड़का – मैं बैठा था..लड़की बोली उठो ये लेडीज़ सीट है ।

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