चीन ही नहीं, एशिया के अनेक देशों में उच्च शिक्षा परीक्षा हमेशा लोगों का ध्यान खींचती है। इस साल के अप्रैल माह के अंत में 17 की उम्र वाली लड़की कीर्ती ट्रिपथी ने भारत के कोटा की एक इमारत से नीचे कूंद कर आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने अभी अभी भारतीय आईआईटी में दाखिला परीक्षा में हिस्सा लिया था। एक हफ्ते के बाद कोटा की अन्य एक लड़की प्रीती सिंह ने भी आत्महत्या की। वे सब कोटा की एक कक्षा में पढ़ती थीं। इस कक्षा का एकमात्र उद्देश्य है कि हाई स्कूल के छात्रों को आईआईटी परीक्षा की तैयारी करने में मदद देना।
कोटा के स्थानीय वरिष्ठ अधिकारी रवि कुमार सुपर ने इन आत्महत्या कांडों की चर्चा में अभिभावकों से बच्चों पर बड़ा दबाव न डालने का आग्रह किया है।
चीनी अभिभावकों की तरह भारतीय अभिभावक अपने बच्चों की शिक्षा पर कड़ी नजर रखते हैं। वे जानते हैं कि सही डिग्री मिलना बच्चे के भविष्य के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसलिए वे बच्चों को अच्छी डिग्री मिलने को सुनिश्चित करने की हरसंभव कोशिश करते हैं। लेकिन अच्छी डिग्री पाना आसानी बात नहीं है। इसलिए परिक्षा की तैयारी के लिए कई प्रशिक्षण कक्षाएं खोली जाती हैं।
भारत में हर साल करीब 5 लाख छात्र आईआईटी परीक्षा में भाग लेने का आवेदन करते हैं, लेकिन केवल 1 लाख लोग अंत में भारतीय प्रौद्योगिकी अकादमी में भर्ती हो सकते हैं।
भारतीयों की नज़र में चिकित्सा और प्रौद्योगिकी मध्यम वर्ग के लोगों का विकल्प है। भारत में हर साल 5 लाख इंजीनियर स्नातक होते हैं, जबकि 80 प्रतिशत के लोग प्रौद्योगिकी नौकरी नहीं करते हैं। इसके बावजूद भारतीय अभिभावकों की नजर में प्रौद्योगिकी डिग्री बहुत महत्वपूर्ण है।
उधर, भारत के चिकित्सक जगत भारतीय चिकित्सा शास्त्री कमेटी के हाथों में है और चिकित्सा अकादमियों को सीमित डिग्री देता है। 1.2 अरब आबादी वाले भारत में हर साल केवल 6.38 लाख चिकित्सा डिग्रियां प्रदान की जाती हैं। यह संख्या चिकित्सा शास्त्र सीखने वाले लोगों का 1 प्रतिशत से भी कम है।
इसी पृष्ठभूमि में करोड़ों छात्र सीमित अकादमियों में प्रवेश करके डिग्री पाने की होड़ में जुट जाते हैं। अभिभावकों के इरादे को पूरा करने के लिए अनेक भारतीय युवकों को विवश होकर अपनी रुचि को छोड़कर इंजीनियर या डॉक्टर बनने में प्रयास करना पड़ता है।