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च्येन जडं

च्येन जडं पूर्वी चीन के च्यांग सू प्रांत के यांग च्यो की यांग ईन काऊंटी के निवासी थे। ईसापूर्व 708 में, 21 वर्षीय च्येन जडं ने छांग एन औपचारिक रुप से भिक्षु बनें। इस के बाद के 40 वर्षों में, उन्होंने 40 हजार से ज्यादा लोगों को भिक्षु बनाया, जिन में से अनेक बाद में वरिष्ठ भिक्षु बन गये। च्येन जडं पूर्वी चीन के महान भिक्षु माने जाते थे। बौद्ध अनुयाइयों में उन का स्थान बहुत ऊंचा था।

ईसवी 743 में, जापानी भिक्षु रोन रेई और फू चायो यांग च्यो ने आकर च्येन जडं को जापान आने का आमंत्रण दिया। च्येन जडं ने निमंत्रण खुशी से स्वीकार कर लिया और अपने 21 शिष्यों के साथ लेकर जापान जाने का कार्यक्रम बनाया। लेकिन, प्रथम यात्रा सरकार के हस्तक्षेप से विफल हो गयी।

दूसरी बार, उन्होंने एक सैन्य जहाज़ खरीदा और अनेक बौद्ध मूर्तियां, दवाएं और खाद्य पदार्थों को उस पर लाद कर, 65 शिष्यों व अनुयाइयों को साथ लेकर एक बार फिर जापान की यात्रा शुरु की। लेकिन, मुख्यभूमि से चलने के कुछ समय के बाद ही, भारी हवा की वजह से जहाज खराब हो गया। च्येन जडं को विवश होकर वापस लौटना पड़ा। जहाज की मरम्मत करने के बाद, च्येन जडं ने तीसरी बार जापान की यात्रा की शुरुआत की। लेकिन, इस बार, वे एक बार फिर विफल हो गए।

लेकिन तीन बार की विफलताओं के सामने भी च्येन जडं ने सिर नहीं छुकाया। ईसवी 744 में, च्येन जडं ने फिर एक बार जापान की यात्रा करने की तैयारी की। लेकिन, सरकार के दृढ़ विरोध की वजह से उन्हें इस योजना को त्यागना पड़ा। ईसवी 748 में, 61 वर्षीय च्यन जडं यांग च्यो रवाना हुए, लेकिन, सागर में भीषण हवा चलने के कारण वे जापान नहीं पहुंच पाये, बल्कि दक्षिण चीन के हाई नान द्वीप के दक्षिण में पहुंचे। इस के बाद की पांचवीं बार की जापान यात्रा भी विफल हुई। जापानी भिक्षु रोन रेई और च्येन जडं का शिशु यांग येन का क्रमशः देहांत हो गया, जबकि च्येन जडं की अत्यधिक थकान के कारण दोनों आंखों की शेशनी चली गयी।

और पांच वर्षों के बाद, हालांकि 66 वर्षीय च्येन जडं अब अंधे थे, फिर भी वे फिर एक बार जापान की यात्रा करना चाहते थे। ईसापूर्व 753 में 19 अक्तूबर को वे यांग च्यो से रवाना हुए। और 20 दिसम्बर को च्येन जडं ने आखिरकार जापान की भूमि पर कदम रखा। च्येन जडं का जापानी भिक्षुओं ने गर्मजोशी से स्वागत किया। इस के बाद, तत्कालीन जापान सरकार ने च्येन जडं के लिए एक च्येई थेई मंदिर का निर्माण किया और च्येन जडं मंदिर के अध्यक्ष नियुक्त किये गये। इसापूर्व 756 में जापान सरकार ने उन्हें दा सन दु नियुक्त किया। इस तरह का व्यवहार अभूतपूर्व था। बाद में उन्होंने अपने शिष्यों के साथ जिस थांग ल्वू जाओ थी की स्थापना की, वह आज का जापान का प्रसिद्ध मंदिर थांग जाओ थी मंदिरही है। इसवी 763 के मई माह में च्येन जडं का जापान में निधन हुआ । उस समय वे 76 की उम्र के थे।

च्येन जडं दस वर्ष तक जापान में रहे। उन्होंने जापान की संस्कृति के विकास में, चीन जापान संस्कृति के आदान प्रदान के लिए भारी योगदान दिया था। उस वक्त चीन में थांग राज्यवंश का सब से समृद्ध काल था। जापान की यात्रा करते समय वे चीन से अनेक कलाकृतियां, चित्र, रत्न, बर्तन आदि चीज़ें जापान लेकर गये थे। उन के द्वारा ले जायी गयी चीनी सांस्कृतिक कला बाद में जापान में थ्येन फींग संस्कृति बनी।

थ्येन फींग संस्कृति का सारा बुद्ध संस्कृति है। जबकि च्येन जडं द्वारा जापान को दिया गया सब से उल्लेखनीय योगदान बौद्ध धर्म ही था। च्येन जडं ने चीनी मंदिरों की वास्तुकला के अनुसार, थांग जाओ थी मंदिर का निर्माण किया, यह बाद में जापान के बौद्ध धर्म के मंदिरों का आदर्श बन गया। बौद्ध मूर्ति बनाने में, पहले जापान में केवल कांस्य और लकड़ों की मूर्तियां ही बनायी जाती थीं। च्येन जडं की जापान यात्रा के बाद, इस में भारी परिवर्तन हुआ। सूखी पेन्टिंग मूर्ति थ्येन फींग कला में सब से गौरवपूर्ण कला थी। च्येन जडं के देहांत होने के बाद बनाई गयी च्येन जडं की मूर्ति भी सूखी पेन्टिंग मूर्ति ही थी।

इस के अलावा, च्येन जडं ने चीन की चिकित्सा पद्धति से भी जापान को परिचित करवाया। उन्होंने खुद ही जापान की क्वांग मींग रानी का इलाज किया। हालांकि वे खुद अंधेरे में थे, फिर भी वे सही रुप से इलाज कर सकते थे।

च्येन जड ने अपनी महनत से चीन व जापान की जनता के बीच मैत्री स्थापित की और चीन व जापान के सांस्कृतिक आदान प्रदान में अभूतपूर्ण अध्याय जोड़ा । वर्ष 1973 में तत्कालीन चीनी उप प्रधान मंत्री तंग श्याओ फींग ने जापान की थांग ज्याओ थी मंदिर की यात्रा की और च्येन जडं की मूर्ति को स्वदेश की यात्रा करने की अनुमति दी।वर्ष 1980 में, च्येन जडं की मूर्ति को यांग च्यो में प्रदर्शित किया गया जहां चीनी लोगों ने उस का हृद्य से स्वागत किया। 

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