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ब्रह्मांड के निर्माता फानकु की कहानी

कहा जाता है कि विश्व के संपन्न होने से पूर्व ब्रह्मांड में न जमीन थी , न ही आसमान था , ब्रह्मांड एक विशाल अंडे की भांति गोलाकार था , जिस के भीतर गाढ़ा धुंधलाई और अंधकार था , ऊपर नीचे व बाईं दाईं का अन्तर नहीं होता था और न ही दक्षिण उत्तर व पश्चिम पूर्व का फर्क । लेकिन इस गोलाकार धुंध में एक महान वीर का जन्म हुआ था , जिस का नाम था फानकु । इस विशाल धुंधले अंडे के अन्दर फान कु 18 हजार वर्ष पले बढ़े , अंत में गहन निद्रा से जाग उठे , उस की आंखें खुलीं , चारों ओर अंधकार छाया हुआ नजर आयी , शरीर इतना गर्म और तपता था कि उसे सहना भी मुश्किल था और सांस भी उखड़ी हुई लगती थी । वह उठ खड़ा चाहते थे , पर अंडे का घोल उस के शरीर को कसकर जड़ित हुआ था , जिस से हाथ पांव थोड़ा सा बढ़ाना भी असंभव था । तो उसे बड़ा क्रोध आया , अपने जन्म के साथ आया एक विशाल कुल्हाड़ा पकड़े पूरी शक्ति लगा कर वार किया , भारी गड़गड़ाहट की आवाज के साथ वह विशाल अंडा फट पड़ा , जिस में से हल्का द्रव्य ऊपर को ऊपर्ध्वगति होने लगा , आहिस्ता आहिस्ता वह आसमान बन गया , जिस में से भारी द्रव्य नीचे की ओर उतरता जा रहा और जमीन का रूप ले लिया गया ।

फानकु को बड़ी खुशी हुई थी कि उस के परिश्रम से जमीन और आसमान अलग कर उत्पतित हुए । लेकिन इस डर से कि जमीन और आसमान पुनः मिल कर जुड़ा न जाए , फानकु ने अपने सिर से आसमान को टेक दिया और अपने पांव को जमीन पर दबाया ,अपनी दिव्य शक्ति से उस का शरीर दिन में नौ बार परिवर्तित हुआ करता था , रोज उस का शरीर एक जांग ( चीन का पुराना नाप ,जो साढे तीन मीटर के बराबर ) बढ़ जाता था , इस के साथ आसमान भी एक जांग ऊंचा हो गया और जमीन एक जांग मोटी हो गयी । इस प्रकार 18 हजार वर्ष गुजरा , फानकु जमीन और आसमान के बीच एक अनंत असीम विशाल मानव बन गया , उस का शरीर नब्बे हजार मील से भी लम्बा था । इस के बाद पता नहीं कि फिर कितने वर्ष बीते , अखिरकार जमीन और आसमान अपनी अपनी जगह पर मजबूती के साथ जड़ित हो गए और पुनः मिल कर जुड़ने की संभावना भी न रही । फानकु ने राहत की सांस ली , किन्तु तब संसार का निर्माण करने वाला यह महान वीर भी पूरी तरह थके हो गए थे , अपने को खड़ा रखने के लिए उस की जरा भी ताकत नहीं रह गई कि उस का भीम काय धड़धड़ कर ढह गया ।

फानकु के स्वर्गवास के बाद उस के शरीर में बड़ा परिवर्तन आया , उस की बाईं आंख लाल लाल सुर्य बनी , दाईं आंख रूपहली चांद हो गई , उस की अंतिम श्वास हवा और बादल के रूप में बदली , अंतिम आवाज बिजली का गर्जन बन गयी । उस के बाल और दाढ़ी जगमगाते हुए तार बने , सिर और पांव जमीन के चार भुवन और पर्वत हो गए , रक्त नदी और झील के रूप में आया , मांसपेशी ऊपजाऊ भूमि बनी , नाड़ी मार्ग हो गई , त्वच और रोंएं पेड़ पौधे और पुष्प रहे , दांत और खोपड़ी सोना चांदी , लोह तांबा तथा जेड रत्न के रूप ले गए और उस के पसीना वर्षा और पानी में परिवर्तित हुए । इसी प्रकार से विश्व का रूपाकार संपन्न हो गया ।

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